Monday, October 8, 2007

भरपूर हो प्रगति, लेकिन आध्‍यात्मिकता रहे बनी


५७ साल पहले, जब भारत ने खुद को लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया, बहुत कम लोगों को ही यह यकीन था कि भारतीय प्रयोग सफल हो सकेगा। बहुत से विचारकों, राजनीतिक विश्लेषकों, नीति निर्धारकों ने भारत को बतौर राष्ट्र असफल घोषित कर दिया- असहनीय भूख और अभाव से ग्रस्त एक एेसा देश, जिसकी तमाम विविधताओं, विभिन्न भाषाओं, प्रजातियों, सांप्रदायिक समस्याओं के चलते इसे आधुनिक राष्ट्र के तौर पर खड़ा किया ही नहीं जा सकता। लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में तो बिलकुल ही नहीं। ५0 और ६0 के दशकों में जब भारत सांप्रदायिक, जातीय व प्रजातीय ङागड़ों और अंतरधार्मिक विवादों, क्षेत्रीय और अलगाव की ख्वाहिशों की आग में ङाुलस रहा था तब ही आधुनिक, लोकतांत्रिक, समृद्ध और स्थिर राष्ट्र के रूप में भारत की तस्वीर को दिवास्वप्न करार दे दिया गया था। उसके ठीक ६0 साल बाद भारत आज गणराय के रूप में सिर उठाए दुनिया के सामने खड़ा है, वह भी पूरे गौरव और सामथ्र्य के साथ।
देशों की विशाल सभा में अपने सामथ्र्य के लिहाज से उपयुक्त कुर्सी पाने का हक जताने के लिए भारत अंतत: बिलकुल सही रास्ते की ओर बढ़ रहा है। लेकिन आज जो भारत उभरता हुआ नजर आ रहा है, वह एक एेसा भारत है, जिसका अंदाज पहले से जुदा है। हम भारतीयों ने हमेशा इस बात पर यकीन किया है कि आर्थिक विकास और भौतिक तरक्की की अहमियत है मगर हमें यह भी पता है कि इसके साथ-साथ हमें अपनी आध्यात्मिक शक्ति को भी संजोना, संवारना, बचाना और और बढ़ाना है।
आज जब कि दुनिया विवादों से घिरी है, खासतौर से विविधताओ से उपजने वाले विवादों से, तो हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती इन्हीं विविधताओं में संतुलन साधने की है। बाकी दुनिया के ठीक उलट, भारत ने तो हमेशा विकास ही विविधताओं की नींव पर किया है। यह हमारा ही देश है, जिसने चार बड़े धर्मो को न सिर्फ जन्म दिया बल्कि विभिन्न संस्कृतियों को बेहिचक आत्मसात भी किया। आज, हम खुद को भविष्य की आर्थिक महाशक्ति के तौर पर पेश तो करते ही हैं, विवादों के जख्मों से कराहती दुनिया को बतौर मरहम शांति और आध्यात्मिकता की रोशनी देने की दावेदारी भी करते हैं। जैसा कि भगवद् गीता में कहा गया है- समथ्वम योग उच्चता- संतुलन में ही योग का निहितार्थ छिपा है- एक संतुलन, जो कि आध्यात्मिकता और भौतिकता के बीच हो।
भारत को अतीत काल से ही असंख्य समस्याओं वाली धरती के रूप में पेश किया जाता रहा है। लेकिन, मेरा मानना है कि आज का भारत असंख्य अवसरों वाली धरती के रूप में तब्दील हो चुका है। हमें अब खुद पर यकीन होने लगा है, कामयाबी हासिल कने की अपनी क्षमता पर भी। दुनिया दम साधकर बैठी है और हमारी उपलब्धियों को आकार लेते देख हमारा लोहा मान रही है।
अगर क्रय शक्ति के पैमाने पर देखें तो पिछले कुछ बरसों में आर्थिक विकास को लगे पंख के चलते हमारी अर्थव्यवस्था पहले ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है। आज हम खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था और खरब डॉलर वाली बाजार पूंजी वाली ताकत बन चुके हैं। कुलांचे मारती हमारी विकास दर के लिए दुनिया भर से हमें चुनौती देने की कुव्वत केवल चीन में ही है। पिछले पांच बरसों में, भारत की सरजमीं ने अरबों डॉलर की पूंजी वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की रिकॉर्ड फसल पैदा की है। पिछले चार वर्षो में, हमने लाखों की तादाद में नई नौकरियों को मुहैया कराया है। अनुमान हैं कि अगर ९ फीसदी की हमारी वर्तमान विकास दर यूं ही बरकरार रही तो २0१५ तक हम बेरोजगारी की समस्या को जड़ से खत्म करने में कामयाब हो जाएंगे।
लेकिन भारत वह भी तो हो, जो न सिर्फ अपने को एक एेसी शक्ल में ढाल सकता है बल्कि इसे ढलना ही चाहिए, वह शक्ल है - समता के सिद्धांतों वाले भारत, समान अवसरों वाले भारत और एेसे भारत की, जिसमें हम सभी का कल्याण हो।
पिछले छह दशकों के भीतर, जिस दौरान हमारा मुल्क तरक्की की सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ता रहा, हमने अपने लिए जो-जो लक्ष्य तय किए, वे हमारी पहुंच से दूर होते गए। हमारे यहां ही कुपोषण के शिकार बच्चों की इतनी बड़ी तादाद है, जितनी दुनिया के किसी और मुल्क में नहीं। इस मामले में हमारी हालत सहारा उपद्वीपीय अफ्रीकन भू-भाग से भी बदतर है। छह से १0 साल की उम्र के बीच के तकरीबन ३.५ करोड़ या यूं कहें कि मुल्क का हर तीसरा बच्च स्कूल की शक्ल नहीं देख पाता। और जो बच्चे स्कूल जाने का सौभाग्य पाते भी हैं, उनमें से भी एक बड़ी तादाद उन बच्चों की है, जिनकी पढ़ाई बीच में ही छुड़वा दी जाती है। अनुसूचित जाति की औरतों में साक्षरता दर महज ९ फीसदी है जबकि पुरुषों में भी यह ४६ प्रतिशत ही है। हमारे मुल्क में बड़ी तादाद में एेसे लोग भी हैं, जिन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिल पातीं और न ही उनके पास पीने का साफ पानी, सिर छिपाने के लिए छत और शौचालय सुविधाएं हैं। हमारी तमाम कामयाबियों के बावजूद, भारत के एक तिहाई लोग गरीब, कुपोषित, अशिक्षित और बीमारियों के शिकार हैं। हमारे किसानों की उत्पादन सामथ्र्य यादा नहीं है क्योंकि कृषि अनुसंधान व संबंधित सेवाओं उन्हें मुहैया नहीं हैं, उनके लिए जरूरी पानी, बिजली, बीज, खाद आदि की स्थिति भी अच्छी नहीं है। साफ कहें तो एेसी राह पर भारत आगे बढ़ ही नहीं सकता।
लिहाजा, हमें अपनी प्राथमिकताओं को नए सिरे से तय करना होगा और शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी मूलभूत चीजों को इसके कें्र में रखना चाहिए। हमें न सिर्फ इसके खाके पर ध्यान देने की जरूरत है बल्कि इससे मिल सकने वाले नतीजों पर भी हमें ध्यान देना होगा। इंसानी विकास के मद में खर्च होने वाले हर रुपये में से हमारे मुल्क के कितने बच्चों को, स्तर के लिहाज से न कि तादाद के लिहाज से, बेसिक शिक्षा मुहैया कराने में मदद मिल रही है, कितनी ग्रामीण आबादी को स्तरीय प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पा रही हैं? हमें शांति के काल में एक अलग और नई जंग छेड़नी होगी- गरीबी के खिलाफ जंग, जो कि आज हमारे देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बन कर खड़ी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आज के ‘वाइब्रेंट इंडिया’ की मुख्य धारा में उन २0 करोड़ लोगों को भी हम शामिल करें, जो कि आर्थिक विकास के दायरे की सीमारेखा पर खड़े हैं।
स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ-साथ, सबसे अहम और मूलभूत आवश्यकता समान अवसर मुहैया कराने की है। एेसे देश में जहां हमारी जीडीपी में कृषि की भागीदारी महज १९ फीसदी ही है, ७0 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि पर ही निर्भर है। कृषि मुनाफे में दिन-ब-दिन कमी होती जा रही है। इसके मद्देनजर हमें किसान को खाद्य प्रसंस्करण की वैल्यू चेन में लाना होगा या फिर या और अन्य क्षेत्रों में उसे रोजगार अवसर मुहैया कराने होंगे, मसलन- उत्पादन या सेवा क्षेत्र , जिससे उसको नए क्षेत्र में प्रवेश का मौका मिल सके। चूंकि हर अर्थव्यवस्था विकासशील दौर से विकसित शक्ल की तरफ बढ़ती है, उसका बदलाव कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से उत्पादन या सेवा क्षेत्र आधारित अर्थव्यवस्था की शक्ल में होने लगता है। एेसा ही कुछ भारत के साथ भी होना है। भारत को नॉलेज इकॉनमी के क्षेत्र में पहले ही ग्लोबल लीडर माना जा चुका है। हमें इस खूबी को एक एेसी पूंजी की शक्ल में बदलने की जरूरत है, जिसके तहत हम हर क्षेत्रों में नित नए अनुसंधान और अविष्कारों को आकार देने में कामयाब हो सकें। चाहे वह अंतरिक्ष हो, ऊर्जा के नए स्रोत, इंजीनियरिंग एक्सीलेंस या मेडिसिन हो। इन्हीं क्षेत्रों की कतार में सबसे अंत में मैं जिक्र करूंगा कि कृषि एवं फसल विज्ञान का लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि अहमियत में यह किसी से कम है। तब हमारा देश महाशक्ति और विज्ञान व तकनीकी मोर्चे पर विश्व नेता बनने की ख्वाहिश रख सकता है।
भारत ने पहले भी लोगों को भौचक्का किया है। जैसा कि अक्सर कहा गया है- अच्छे आइडिया बहुत से हैं, लेकिन सफलता उसी को मिलती है, जो उन्हें अमल में लाना जानता हो। आज, भारत को हर क्षेत्र में नेतृत्व करने की जरूरत है- राजनीति, कारोबार, सामाजिक क्षेत्र- क्योंकि उसमें एेसा करने का माद्दा है।
ज्‍योतिरादित्य एम. सिंधिया
सांसद, लोकसभा

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